80 करोड़ की दौलत और अकेली अंतिम यात्रा — एक कड़वी सच्चाई
ज़रा सोचिए — आधुनिकता की दौड़ में हमने रिश्तों की गर्मजोशी को किस तरह पीछे छोड़ दिया है। वाराणसी में हुई एक घटना हमें भरोसा तोड़ने और इंसानियत पर सोचने के लिए मजबूर कर देती है।
घोर आधुनिकता के मायने
आज के दौर में इंसान आधुनिकता की अंधी दौड़ में इतना खो गया है कि रिश्तों का असली अर्थ ही भूल गया है। जो माँ-बाप हमें जीना सिखाते हैं, आज उनकी बुढ़ापे की तन्हाई और उपेक्षा सामने आ रही है। एक पुरानी कहावत है — “पुत्र कुपुत्र हो सकता है, पर माता-पिता कुपिता नहीं हो सकते।” पर आज का सच इसे झुठला रहा है।
वाराणसी की दिल दहला देने वाली घटना
यह कड़वा सच हमारे सामने वाराणसी में एक दिल दहला देने वाली घटना के रूप में आया। यहाँ के मशहूर साहित्यकार और पद्मश्री से सम्मानित श्रीनाथ खंडेलवाल जी का निधन एक वृद्धाश्रम में हुआ — और उनका अंतिम संस्कार समाज के चंद लोगों ने करवा दिया। क्या यह समाज की जीत है या रिश्तों की हार?
80 करोड़ की दौलत, पर बेइंसाफ़ संतान
श्रीनाथ खंडेलवाल जी के पास करीब 80 करोड़ रुपये की जायदाद थी। जीवनभर साहित्य और अध्यात्म में रमे रहने के बावजूद, उनकी अपनी संतान ने संपत्ति अपने नाम कर ली और जीवन के आखिरी पल में उन्होंने अपने पिता का साथ नहीं दिया — वह उम्र जब बच्चे माता-पिता का सहारा बनते हैं, उस समय उनका ऐसा व्यवहार बेहद तकलीफदेह है।
एक महान व्यक्तित्व
श्रीनाथ जी किसी आम शख्सियत के नहीं थे। उन्होंने सौ से ज़्यादा किताबें लिखीं और साहित्य व अध्यात्म में उनके योगदान के लिए उन्हें 2023 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। वे लेखक और आध्यात्मिक मार्गदर्शक थे — पर उनका अपना परिवार उनसे विरक्त रहा।
वृद्धाश्रम बना आखिरी पनाहगाह
पारिवारिक बेरुखी और बीमारी के कारण श्रीनाथ जी को वाराणसी के एक वृद्धाश्रम में शरण लेनी पड़ी। वहाँ सेवा तो मिली, पर बच्चों का प्रेम और साथ नहीं मिल पाया। उनका बेटा एक बिजनेसमैन और बेटी सुप्रीम कोर्ट में वकील होने के बावजूद कभी वृद्धाश्रम आने की झिझक नहीं मिटा पाई।
मौत के बाद भी नहीं आए बच्चे
जब उनकी तबियत बिगड़ी और उन्हें आईसीयू में भर्ती कराया गया, तो परिवार को सूचित करने पर भी बेटे-बेटी ने ‘व्यस्तता’ का बहाना बनाकर मिलने से इनकार कर दिया। इस प्रकार, इतने बड़े व्यक्तित्व की अंतिम घड़ी में उनका कोई अपना हाथ थामने तक नहीं आया।
समाज ने निभाया फर्ज
खून के रिश्तों ने साथ छोड़ा, पर इंसानियत मरी नहीं। अमन नाम के एक युवक और उनके साथियों ने चंदा इकट्ठा करके श्रीनाथ जी का पूरे विधि-विधान से अंतिम संस्कार करवाया। यह दिखाता है कि समाज में अभी भी दिलदार लोग मौजूद हैं — पर साथ ही यह सवाल भी खड़ा करता है कि क्या समाज को बार-बार यह जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी?
हम सबके लिए एक सबक
यह घटना केवल एक शख्स की नहीं है, बल्कि उन सभी माता-पिता की कहानी है जो अपने बच्चों के भरोसे बुढ़ापे की उम्मीद लगाए बैठे हैं। आज बच्चे करियर, पैसा और शोहरत में इतने उलझे हैं कि माता-पिता की सेवा और साथ पीछे छूट जा रहा है। हम भूल जाते हैं कि पैसा असली सहारा नहीं बन सकता — असली ताकत माता-पिता के आशीर्वाद में होती है।
सबक — संक्षेप में
- 👉 माता-पिता का सम्मान करना सबसे बड़ा धर्म है।
- 👉 पैसा और शोहरत अस्थायी हैं — प्रेम और आशीर्वाद स्थायी।
- 👉 अगर बच्चे साथ छोड़ दें, तो भी दुनिया में अच्छे लोग मदद के लिए मौजूद रहते हैं।
आखिर में…
वाराणसी की यह घटना हमें फिर सोचने पर मजबूर करती है — क्या हम इतने ‘आधुनिक’ हो गए हैं कि अपने माता-पिता के त्याग और प्यार को भूल बैठे हैं? क्या उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होना भी हमारी व्यस्तता से बड़ा नहीं?
वक्त आ गया है कि हर बच्चा यह प्रण ले — चाहे कुछ भी हो, वह हमेशा अपने माता-पिता का सहारा बनेगा।
“माँ-बाप ही वो असली दौलत हैं, जिन्हें खोकर इंसान सच में कंगाल हो जाता है।”